अयोध्या के बाद अब 2024 से पहले काशी-मथुरा की तैयारी क्यों?

  आलेख : राजेन्द्र शर्मा

काशी में अयोध्या प्रकरण के बाकायदा दुहराए जाने की तैयारियां शुरू हो गयी लगती हैं। शहर की एक अदालत के आदेश पर, भारतीय पुरातत्व सर्वे ने सोमवार, 24 जुलाई की सुबह, ज्ञानवापी मस्जिद के अंदर सर्वे की कार्रवाई शुरू कर दी। अदालत का आदेश, पूरी मस्जिद के सर्वेक्षण का है, जिससे इसका पता लगाया जा सके कि क्या उसके नीचे कोई मंदिर दबा/छुपा हुआ है।

इस सर्वेक्षण से सिर्फ मस्जिद के वजूखाना को बाहर रखा गया है, जिस पर एक स्वतंत्र किंतु इस सिलसिले से जुड़े हुए एक अन्य मामले में, स्थानीय अदालत के आदेश पर इससे पहले कराए गए वीडियो सर्वे के जरिए, वजूखाना को ”शिवलिंग” बताकर, विवादित कर दिया गया था। जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने उसे सील करने के आदेश दे दिए थे।

बेशक, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ ने मस्जिद पक्ष की अपील पर, फौरन हस्तक्षेप करते हुए, भारतीय पुरातत्व सर्वे के सर्वेक्षण के शुरू होने के चंद घंटों में ही, दो दिन तक उस पर रोक के आदेश दे दिए, ताकि मस्जिद पक्ष इस सर्वे के खिलाफ इलाहाबाद हाई कोर्ट में अपील कर सके।

इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने, इलाहाबाद हाई कोर्ट के रजिस्ट्रार से उक्त स्थगनादेश की अवधि पूरी होने से पहले, अपील सुनवाई के लिए रजिस्टर कराने का आदेश देकर, यह सुनिश्चित किया कि इलाहाबाद हाई कोर्ट के संज्ञान में लेने तक, आईएसआई के सर्वे की कार्रवाई रुकी रहे। इस तरह कम-से-कम फौरी तौर पर तो, मस्जिद के अंदर सर्वे का काम शुरू होने के साथ ही रुकवा दिया गया है।

बहरहाल, इस फौरी राहत से लगता नहीं है कि बहुत राहत ली जा सकती है। 2021 से ज्ञानवापी मस्जिद के विरुद्घ प्रकरण को और उधर मथुरा में ईदगाह मस्जिद के विरुद्घ प्रकरण को भी, एक धीमी, किंतु निश्चित दिशा में आगे बढ़ती कानूनी लड़ाई के जरिए, जिस तरह न सिर्फ लगातार जिंदा रखा जा रहा है, बल्कि लगातार आगे भी बढ़ाया जा रहा है, वह अनिष्टकर रूप से बाबरी मस्जिद से जुड़े घटनाक्रम के ही दुहराए जाने की आशंकाएं पैदा करता है।

पहले, काशी के विश्वनाथ मंदिर से सटी ज्ञानवापी मस्जिद की एक दीवार पर बाहर की ओर, शृंगार गौरी की मूर्ति/ मंदिर का दावा किया गया और साल में एक दिन उसकी पूजा शुरू हो गयी। बाद में उसे बढ़ाने की कोशिश की गयी, बहरहाल प्रशासन ने एक दिन तक पूजा को सीमित कर दिया।

उसके बाद, उत्तर प्रदेश के विधानसभाई चुनाव से पहले, 2021 में मस्जिद परिसर में शृंगार गौरी की दैनिक पूजा के अधिकार की मांग को लेकर, पांच महिलाओं ने एक निचली अदालत का दरवाजा खटखटाया।

कहने की जरूरत नहीं है कि इस खेल को, हिंदुत्ववादी सांप्रदायिकता की ताकतें बढ़-चढ़कर समर्थन दे रही थीं। इसी के सिलसिले में आगे चलकर, मस्जिद परिसर में वीडियो सर्वे के विवाद को आगे बढ़ाने वाला आदेश आया।

एकाधिक प्रकरणों के जरिए बढ़ाते हुए इस सिलसिले को, मौजूदा मुकाम पर पहुंचाया गया है, जहां जिला अदालत ने यह पता लगाने के लिए कि क्या, मस्जिद किसी मंदिर पर बनाई गयी थी, आईएसआई के सर्वे के आदेश दिए हैं।

यह सिर्फ अदालती आदेश का ही मामला नहीं है, बल्कि बड़ी चतुराई से यह सुनिश्चित किए जाने का भी मामला है कि जिला अदालत के आदेश को, दूसरा पक्ष चुनौती ही नहीं दे सके। जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने स्थगनादेश में दर्ज भी किया है, शुक्रवार 21 जुलाई को शाम साढ़े चार बजे उक्त फैसला दिया गया था और सोमवार को सुबह ही एएसआई ने एक बड़ी-सी टीम भेजकर सर्वे का काम शुरू भी करा दिया।

इसी को देखते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने यह जरूरी समझा है कि याचिका दायर करने के लिए दूसरे पक्ष को समुचित समय मिलना चाहिए और उसने दो दिन के लिए उक्त सर्वे के काम पर रोक लगा दी है। कहने की जरूरत नहीं है कि भारतीय पुरातत्व सर्वे की इस मामले में ऐसी तत्परता, वर्तमान शासन की इच्छा और झुकाव को ही प्रदर्शित करती है।

और ऐसी ही इच्छा तथा झुकाव को प्रदर्शित करता है, केंद्र सरकार के सोलिसिटर जनरल, तुषार मेहता का कथित ”वैज्ञानिक सर्वे” के जारी रखे जाने के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट में दलीलें देना और अदालत को यह समझाने की कोशिश करना कि उसे हस्तक्षेप करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि फिलहाल, फोटोग्राफी, मैपिंग, रेडियोग्राफी आदि के जरिए ही सर्वे हो रहा है; किसी भी खुदाई की आशंकाएं फिलहाल निराधार हैं और ”एक ईंट तक नहीं हटाई” गई है।

इस तरह, वर्तमान शासन का पक्ष स्पष्ट है, जो मस्जिद में ”गड़े मंदिर उखड़वाने” के पक्ष में है! दुर्भाग्य से इस मामले में उसके साथ, निचली ही नहीं, उच्चतर न्यायपालिका भी कदम से कदम मिलाकर चलती नजर आती है।

याद रहे कि इसी साल इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने ही अपने एक निर्णय के जरिए, मस्जिद के अंदर दबे हिंदू देवी-देवताओं की पूजा की इजाजत दिए जाने पर, अदालत द्वारा विचार किए जाने की वैधता को मस्जिद पक्ष की चुनौती को खारिज कर दिया था और इस तरह वर्तमान सर्वे का रास्ता खोला था।

अब जिला अदालत, सर्वे के जरिए इसका पता लगाना चाहती है कि क्या मस्जिद में मंदिर छुपा/ दबा हुआ है, जिससे मस्जिद के अंदर पूजा की इजाजत देने पर निर्णय ले सके! यह मस्जिद की जगह मंदिर खड़ा करने के खेल के सिवा और कुछ नहीं है।

बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद, जब 1993 का धार्मिक स्थल कानून बनाया गया था, जो बाबरी-मस्जिद परिसर को अपवाद स्वरूप बाहर छोड़ते हुए, देश भर में दूसरे सभी धार्मिक स्थलों की 15 अगस्त 1947 की स्थिति को बनाए रखने का आदेश देता है और अन्य सभी धार्मिक स्थलों के मामले में, उनके स्वरूप को चुनौती देने वाले, सभी पहले से चले आते दावों व वादों को निरस्त करता है और आगे ऐसे दावों/ वादों पर रोक लगाता है; तभी इस कानून के लक्ष्य से सहमत होते हुए भी, अनेक टिप्पणीकारों ने इसकी आशंकाएं जतायी थीं कि बाबरी मस्जिद प्रकरण जैसे अन्य सत्यानाशी विवाद आगे खड़े किए जाने से रोकने में, यह कानून शायद ही कायमाब होगा।

इन आशंकाओं की मुख्य वजह यह थी कि बाबरी मस्जिद पर खड़े किए गए दावे को अपवाद के रूप में स्वीकार करने के जरिए यह कानून, प्रकटत: ऐसे अन्य संभावित विवादों पर ढक्कन लगाने की कोशिश करते हुए भी, भविष्य में ऐसे नये विवादों को परोक्ष रूप से वैधता देने के जरिए, आगे ऐसे विवादों के विभिन्न उपायों के उठाए जाने के लिए गुंजाइश भी बनाता था।

कहने की जरूरत नहीं है कि ये आशंकाएं सबसे बढ़कर इसलिए थीं कि बाबरी मस्जिद के खिलाफ अभियान का नेतृत्व कर रहीं हिंदुत्ववादी सांप्रदायिकता की ताकतें, जिनमें 1988 से भाजपा भी बाकायदा शामिल हो चुकी थी, आम तौर पर बीसियों हजार मस्जिदों पर कथित हिंदू दावों का प्रचार करने के अलावा, व्यवहारत: करीब-करीब सभी बड़ी या चर्चित मस्जिदों पर तथा सबसे बढ़कर, अयोध्या के बाबरी मस्जिद विवाद की ही तरह, वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा की ईदगाह मस्जिद पर, पहले ही दावे करती आ रही थीं।

लेकिन, ये आशंकाएं इसलिए भी थीं कि बाबरी मस्जिद प्रकरण के जरिए, संघ-भाजपा जैसी ताकतें इसकी मिसाल भी कायम करती नजर आ रही थीं कि भारतीय संविधान के दो-टूक तरीके से धर्मनिरपेक्षता पर आधारित होने के बावजूद, धार्मिक स्थल विवादों के जरिए ये ताकतें बहुसंख्यकों के राजनीतिक धु्रवीकरण के सहारे, शासन पर अपना नियंत्रण या दबाव और बढ़ा सकती हैं।

बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद, तीन दशक से कुछ कम के दौरान जो कुछ हुआ है, उसने उक्त आशंकाओं का सच ही साबित किया है। इसमें शीर्ष पर है, बाबरी मस्जिद प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय का अंतिम निर्णय, जिसके जरिए बाबरी मस्जिद के ध्वंस को गैर-कानूनी कृत्य मानने के बावजूद, पूरा विवादित क्षेत्र इस अवैध कृत्य को अंजाम देने वाले पक्ष को ही, कथित राम जन्मस्थान मंदिर के निर्माण के लिए दे दिया गया है।

जाहिर है कि धर्मनिरपेक्ष संविधान के रहते हुए भी, धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था के इस तरह खुले आम विफल किए जाने के इस विध्वंसक यज्ञ में, संसद के प्रति जवाबदेह शासन से लेकर न्यायपालिका तक, लगभग सभी प्रमुख संस्थाओं ने अपनी-अपनी आहुति दी है।

इस सब को देखते हुए, खास इसकी पुनरावृत्ति रोकने के लिए ही कानून बनाए जाने के बावजूद, इस कानून के बनने के समय से ही, बाबरी मस्जिद ध्वंसलीला बार-बार दुहराए जाने की आशंकाएं जताई जा रही थीं और अब, अयोध्या में ‘भव्य राम मंदिर’ का उद्घाटन होने से पहले ही, उक्त आशंकाएं सच होती नजर भी आने लगी हैं।

इसे विडंबनापूर्ण ही कहा जाएगा कि 1993 के धार्मिक स्थल अनुरक्षण कानून के स्पष्ट प्रावधानों के बावजूद, अगर हम इस कानून को व्यावहारिक मानों में बेमानी बनाए जाते देख रहे हैं, तो इसमें हिंदुत्ववादी सांप्रदायिकता की ताकतों तथा उनकी सरपरस्त सरकार के साथ ही, शीर्ष अदालत का भी हाथ है।

उत्तर प्रदेश के विधानसभाई चुनाव की पूर्व-संध्या में जब काशी तथा मथुरा में मस्जिद-मंदिर विवाद के लिए, कानूनी लड़ाई के जरिए वातावरण बनाने की शुरूआत हुई थी, तभी से सभी सदाशयी ताकतों द्वारा उच्चतर न्यायपालिका से इसकी मांग की जा रही थी कि उसे साफ कर देना चाहिए कि 1993 के कानून के बाद, अब ऐसे दावों की सुनवाई नहीं हो सकती है।

उच्चतर न्यायपालिका के ऐसा न करने से संकेत लेकर, निचली अदालतों पर इन दावों को आगे बढ़ाने का दबाव बनाया गया और इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए, शीर्ष अदालत में उक्त कानून को ही चुनौती देने वाली याचिकाएं भी आ गईं।

दूसरी ओर, काशी-मस्जिद विवाद के ही सिलसिले में, जिला अदालत के सर्वे के आदेश आदि के सिलसिले में, 1993 के कानून के ही आधार पर ऐसी अदालती सुनवाइयों को सुप्रीम कोर्ट में जब चुनौती दी गयी, मुख्य-न्यायाधीश चंद्रचूड़ की ही अध्यक्षता वाली पीठ ने अतिरिक्त विद्वत्ता की झोंक में, धार्मिक स्थलों के पुराने (वास्तविक) स्वरूप के अध्ययन के नाम पर, 1993 के कानून को धता बताने की मुहिम के लिए ही खिड़की खोल दी।

इसी सब की मदद से और 2024 को लेकर, संघ-भाजपा की बढ़ती आशंकाओं के तकाजों से ही, अयोध्या के बाद अब काशी और मथुरा की तैयारी की जा रही है। इस सत्यानाशी सिलसिले को रोकने के लिए भी, 2024 में मोदी राज का हराया जाना जरूरी है।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकलहर’ के संपादक हैं। लेखक के निजी विचार हैं।

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