विश्लेषण: इतने लोकप्रिय होने के बाद भी हिंदी भाषा में ब्राह्मणवादी और सांप्रदायिक भावना के तत्व मौजूद रहे

BY- BIPUL KUMAR

हिंदी में दिया गया एक भाषण लद्दाख के एक अनजान सांसद शेरिंग नामग्याल को पूरे देश का स्टार बना देता है। पूर्वोत्तर के रहने वाले मंत्री किरण रिजिजू संसद में धाराप्रवाह हिंदी में भाषण देते हैं। ममता बनर्जी लोकसभा चुनाव के मौक़ों पर हिन्दी में ना सिर्फ भाषण देती हैं बल्कि राजभाषा में पत्रकारों के सवालों का जवाब देती हैं।

हिंदी के नाम पर जिस तमिलनाडु में साठ के दशक में सड़कों पर ख़ून बहे उस राज्य से आने वाले देश के प्रभावशाली कांग्रेस नेता पी चिदंबरम अंग्रेज़ी के साथ हिंदी में ट्विट करते हैं। प्रधानमंत्री की मातृभाषा गुजराती है और वो पूरी दुनिया में हिंदी में अपनी बात रखते हैं।

20-25 साल पहले दिल्ली में मंत्रियों और बाबुओं की प्रेस कॉन्फ़्रेंस में पत्रकारों को हिंदी में सवाल पूछने में झिझक होती थी वहाँ आज पीसी में नीति नियंता खुद से अपने अंग्रेजी के जवाबों का हिन्दी में तर्जुमा करते हैं। अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने हिन्दी में जवाब देने के लिए ख़ासतौर पर प्रवक्ता की व्यवस्था की है।

आप अगर अब हैदराबाद, बेंगलूरु और कोच्चि जाते हैं तो लोग वहाँ आपको हिंदी में समझ लेते हैं। चीन में बड़ी संख्या में लोगों को हिंदी सिखाई जाती है। इस सबके बाद भी आपको लगता है कि हिंदी के लिए अलग से कुछ करने की ज़रूरत है। हिन्दी को छोड़ दीजिये, वह खुद वहाँ पहुँच जायेगी जहाँ उसे पहुँचने की ज़रूरत है।

हिन्दी प्रदेश को आज सबसे ज्यादा एंटरप्रेन्योर की जरूरत है। ऐसे एंटरप्रेन्योर जिन्हें आर्थिक समृद्धि के साथ ही अपने क्षेत्र, अपनी भाषा, अपने समाज को बेहतर बनाने में रुचि हो। याद रखें कि हिंदी भाषा के विकास में सरकारी से ज्यादा व्यापारी का योगदान रहा है।

इस सब के बावजूद शुरुआत से ही हिन्दी भाषा में ब्राह्मणवादी और सांप्रदायिक भावना के तत्व मौजूद रहे हैं। बाद में राष्ट्रवादी आंदोलन में इस भाषा को प्रमुखता दिए जाने की बात होने लगी लेकिन तब भी ऐसी मांगों का विरोध होता था।

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