क्या यह मुलाकात बहुजन राजनीति की तस्वीर बन सकती है?

BY- BIPUL KUMAR

जिस दिन ये लोग घाट पर कपड़े नहीं धोते, उस दिन वह खेत में हल चलाते हैं। वो जन्मजात किसान हैं-धोबी हैं-श्रमिक हैं। आसान भाषा में कहें तो ‘ये लोग’ बहुजन हैं।

31 अगस्त 2022 के दिन इसी बहुजन समाज की दो नेत्रियों की मुलाकात अखबार और खबरों की सुर्खियों में रहीं। एक थीं उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री और दलितों की बुलंद आवाज मायावती और दूसरी देश की प्रथम व्यक्ति यानी राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू।

बसपा सुप्रीमो ने फूलों का गुलदस्ता देकर द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनने पर बधाई दी और उन्हें अपनी शुभकामनाएं दी। यह बधाई सिर्फ उन्हें राष्ट्रपति बनने की नहीं थी बल्कि अनुसूचित जनजाति (एसटी) समाज से ताल्लुक रखने वाली देश की पहली महिला राष्ट्रपति बनने की थीं। ऐसा मायावती ने अपने ट्वीट में बताया।

यह तस्वीर महिला सशक्तीकरण का जीता-जागता उदाहरण है। जहां, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू देश की सबसे बड़ी कुर्सी पर विराजमान हैं, तो मायावती देश के सबसे बड़े राज्य की चार बार मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। लेकिन यह तस्वीर दलित राजनीति को लेकर भी बड़ी बन सकती थी। अफसोस बनी नहीं।

मायावती दलितों के वोट और राजनीति के आधार पर दलित नेत्री बनी हैं। आज के परिदृश्य में भी दलित राजनीति को ही आधार बनाई हुई हैं। वहीं द्रौपदी मुर्मू देश के सबसे बड़े पद साहित्यिक भाषा में कहूं तो रबड़ स्टैम्प पद पर विराजमान हैं। आदिवासी समाज से आने वाली द्रोपदी का चयन एकमात्र वांछित और शोषित राजनीति के तहत हुआ है।

द्रौपदी मुर्मू का चयन लोकतांत्रिक दृष्टिकोण से जरूर बेहतरीन होगा लेकिन दलित और आदिवासी राजनीति के दृष्टिकोण से नगन्य है। आज के दौर में हिंदुत्व की राजनीति दलित की राजनीति पर ज्यादा प्रभावी है। इस मुलाकात में अगर दोनों छवि स्वतंत्र होती तो दलित राजनीति जरूर प्रभावी होती लेकिन अफसोस नहीं है। गौरतलब है कि, हाल ही में संपन्न हुए राष्ट्रपति चुनाव में द्रौपदी मुर्मू का समर्थन बहुजन समाज पार्टी ने किया था।

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