BY – FIRE TIMES TEAM
तकनीकि के विकास ने सूचनाओं के आदान-प्रदान को बेहद आसान बना दिया है। इसके अलांवा हमारे जीवनशैली को भी बदलकर रख दिया है। इस दौरान बहुत सी अच्छी चीजें हुई हैं, और बहुतों से हमें परेशानी भी झेलनी पड़ रही है। आजकल हमारे सामने सूचनाओं के भंडारगृह हैं, हमें यह नहीं पता कि कौन सी सूचना हमारे और हमारे समाज के लिए सही या गलत है। ये समस्यायें सोशल मीडिया के विकास से ज्यादा बढ़ गई हैं।
रविवार को मद्रास बार एसोसिएशन द्वारा आयोजित एक आनलाइन व्याख्यान में सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस संजय किशन कौल ने फर्जी खबरों और उनकी व्युत्पत्ति पर अपने विचार रखे। शुरूआत में उन्होंने कहा कि बोलने की आजादी का विचार और विषय मुझे अपनी ओर खींचता है। तकनीकि के विस्तार के कारण इसकी चर्चा बहुत महत्वपूर्ण है लेकिन इसकी चुनौतियां भी एकदम अलग हैं। वे आगे कहते हैं –
“फर्जी खबर कोरोना वायरस से भी ज्यादा खतरनाक है, इसके असर कई गुना ज्यादा हैं। भारत में सहनशीलता कम होती जा रही है। एक वर्ग जो दूसरे वर्ग को असहिष्णु बताता है, असल में वह खुद असहिष्णु बन चुका है। अक्सर शहरी नक्सल और मोदी भक्त जैसे शब्दों का इस्तेमाल अलग दृष्टिकोण रखने वाले लोगों को वर्गीकृत करने के लिए किया जाता है। पिछले कुछ वर्षों में सहिष्णुता का स्तर विभिन्न वर्गों में गिरता ही जा रहा है। “
उनका मानना है कि ऐसी स्थिति में विचारों की खुली चर्चा का मंच खत्म होता जा रहा है। यदि हम किसी के विचारों से सहमत नहीं है तो हमें उसके दृष्टिकोण को समझना चाहिए, तभी प्रशंसा या भर्त्सना की जानी चाहिए। उन्होंने अपने एक फैसले को उद्धृत किया, “यदि हमें किसी की किताब पसंद नहीं है, तो उसे फेंक देना चाहिए।”
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न्यू मीडिया के सम्बन्ध में उन्होंने कहा कि प्रेस और सोशल मीडिया दोनों बेहद अलग हैं, जहां हम प्रेस को गलत सूचना के लिए जिम्मेदार ठहरा सकते हैं, लेकिन सोशल मीडिया को नहीं। किसी भी घटना के होने पर ट्रोलिंग एक बड़ी समस्या है जो त्वरित न्याय चाहती है। यह लोगों को भीड़-मानसिकता की ओर ले जाती है। सोशल मीडिया पर हेट स्पीच और अश्लीलता चिंता का विषय है। इन सभी प्लेटफार्मों को संभालने के लिए एक नियामक कानून की आवश्यकता है। उन्होंने यह भी साफ किया कि सरकार की आलोचना राजद्रोह नहीं है। सूचना भेजने या जवाब देते समय अपने तर्कसंगत दिमाग का प्रयोग जरूर करें।
जब लोग न्यायप्रणाली पर ग्रेडिंग का आरोप लगाते हैं तो न्यायिक संस्था को नुकसान होता है। आप एक फैसले के दृष्टिकोण की आलोचना करें तो इसमें कोई दिक्कत नहीं है।