BY- FIRE TIMES TEAM
फिल्में भी समाज का आईना और संस्कृति का प्रचार करने वाला माध्यम है। जिसमें एक शोषित वंचित समाज जब अपने अत्याचारों की गाथाओं को फ़िल्मों के माध्यम से उस समाज में लाना चाहता है जहां उस पर अत्याचार करने वाला बहुसंख्यक समाज के नाम पर तथाकथित स्वघोषित ऊँची जाति का समाज होता है।
स्वघोषित ऊँच नीच की भावनाएँ रखने वाले उनके अत्याचारों की कहानियाँ कभी भी बड़े पर्दे और सिनेमाघरों में प्रदर्शित नही हो पाती है क्योंकि शोषित वंचित समाज के ऊपर अत्याचार करने वाले अपनी संगठन, वाहिनी या सेना जो उनके कुल को श्रेष्ठ प्रदर्शित करने वालों के नाम पर होती है, वह प्रदर्शन करके शोषितों की फ़िल्में बड़े पर्दे पर प्रदर्शित ही नही होने देते। जिनमें चाहे “द शूद्र राइज़िंग” “तीसरी आज़ादी” हो या “द अम्बेडकर” हो!
अनुसूचित जाति और जनजातियों के ऊपर जब तथाकथित ऊँची जाति वाला अत्याचार करता है तो उसकी खबर अख़बारों या न्यूज़ चैनल पर उसका सरनेम ग़ायब करके दबंगों के नाम से सम्बोधित किया जाता है और अत्याचार सहने वाला दलित शोषित कर दिया जाता। अगर वास्तव में शोषित वर्ग बहुसंख्यक समाज का हिस्सा है तो उसको दलित ही क्यों बुलाया जाता हिंदू क्यों नहीं?
“ द कश्मीर फ़ाइल” नामक फिल्में भी समाज का आईना और संस्कृति का प्रचार करने वाला माध्यम है। जिसमें एक शोषित वंचित समाज जब अपने अत्याचारों की गाथाओं को फ़िल्मों को देखकर तथाकथित स्वघोषित ऊँची जाति वालों की आँखों से गंगा जमुना बहकर पूरे बहुसंख्यक समाज को सरस्वती बनाकर एक कर दिया और कश्मीरी पंडितों पर जुल्म और विस्थापन को एक बहुत बड़ा प्रॉपगैंडा बना दिया।
अत्याचार किसी भी पर हो वह स्वीकार बिल्कुल भी नहीं है लेकिन जब आदिवासी शोषित वंचित समाज पर अत्याचार होता है तब कश्मीरी फ़ाइल पर आँसू बहाने वालों की आँखों से आँसू सूख जाते हैं और इस अन्याय के ख़िलाफ़ इनकी आँखों पर पट्टी बंध जाती है।
क्या आपको पता है कि द कश्मीर फाइल्स की कहानियों की तरह SC/ST पर अत्याचारों की कहानियाँ हमारे शोषित समाज की गलियों में आराम से मिल जाएगी लेकिन उनके ऊपर अत्याचार और विस्थापन पर कोई कहानी नही बनेगी।
एक सर्वे विस्थापित कश्मीरी पंडितों की आर्थिक स्थिति और विस्थापित आदिवासियों की आर्थिक स्थिति पर भी होना चाहिए।
फ़िल्मों में किरदारों के नाम भी जाति विशेष के सरनेम वालों के आधार पर ही होती है क्योंकि अगर जाति के सरनेम में विशेषता नही होती तो यूँ लोग अपनी स्वघोषित ऊँची जाति को गर्व के साथ छाती चौड़ा करके नही बताते और यही जाति पर गर्व करने वाले एक समाज को उनकी जाति के आधार पर उन्हें गालियाँ नही देते और न ही इन्हें उनकी जाति के आधार पर उनके गुणधर्म को आंकते!
इसलिए जब बॉलीवुड में हिंदी फ़िल्में बनती है तो फ़िल्म के अभिनेत्री या अभिनेता का सरनेम अधिकतर पांडे, पंडित, शर्मा, तिवारी, त्रिवेदी, त्रिपाठी, चतुर्वेदी आदि सरनेम पात्रों को दिया जाता है और वहीं साउथ की फ़िल्में बनती हैं तो उनमें सरनेम अय्यर, अय्यंगर, नम्मुदरी, रेड्डी आदि सरनेम की लम्बी लिस्ट होती है।
बेहतरीन बाहुबली देखने के बाद ग़ज़ब की फ़िल्म RRR देखी तो दोनों में कोई फ़र्क़ नही दिखा क्योंकि दोनों फ़िल्मों में अपने काल्पनिक चरित्रों को ही अपनी संस्कृति का प्रचार का माध्यम बनाया है और वर्तमान के राजनैतिक परिदृश्य के माध्यम पर खरा उतर सके लेकिन फ़िल्म की क्रीएटिविटी लाजवाब है। कश्मीर फ़ाइल के पीड़ित #पंडितों की कहानी ने कमाई के झंडे गाड़ दिए लेकिन बच्चन पांडे, कश्मीरी फ़ाइल के पंडितों की वजह से डूब गई ऐसा मैं नही यह खुद अक्षय कुमार ने कहा है जिनके पास खुद भारत देश की नागरिकता नही है लेकिन फ़िल्मों के माध्यम से देशभक्ति और तथाकथित सरनेम को संस्कृति का हिस्सा बनाते है।
इसलिए कहते है कि फ़िल्में समाज का आईना होती हैं लेकिन सवाल यह है भारत देश में फ़िल्में किस समाज का आईना हैं? जवाब दीजिए!
नीचे चित्र में उन राज्यों का चित्रण हैं जहां पर जाति के नाम पर शोषण होता है। इसलिए अब आप ये बताइए क़ि ये जाति के नाम पर शोषण करने वाले कौन सी जाति या धर्म से आते हैं?
सोचिए और बताइए?
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