पहलवान के अखाड़े व राजनीति में दांव पेंच के माहिर मुलायम सिंह यादव का राजनीतिक सफर कैसा रहा?

BY- इं शाहरुख अहमद

आज मेदांता अस्पताल में 82 साल की उम्र में मुलायम सिंह यादव ने अंतिम सांस ली। कुश्ती के अखाड़े में पहलवानों को चित करने वाले मुलायम सिंह यादव ने अपने राजनीतिक सफ़र में कई बड़े बड़े राजनीतिक पहलवानों को राजनीति में चित कर उत्तर प्रदेश के तीन बार के मुख्यमंत्री और एक बार के रक्षा मंत्री बने।

उनके गांव के लोगों का कहना है कि उनके पहलवानी के दिनों में उनके चर्खा दांव से कोई भी पहलवान बच नहीं पाता था, पहलवानों के चारो खाने चित कर देते थे। किसी पहलवान के कमर तक उनका हाथ पहुंच जाता था, तो किसी पहलवान की मजाल नहीं होती थी कि वो अपने आपको मुलायम से छुड़ा ले। शिक्षक बनने के बाद पहलवानी पूरी तरह छोड़ दी लेकिन वो सैफई में आखरी वक्त तक दंगल का आयोजन कराते रहे।

राजनीतिक अखाड़े का सफर 1967 से शुरू होता है, उस वक्त सोशलिस्ट पार्टी के नेता नाथू सिंह ने जसवंतनगर से विधानसभा चुनाव का टिकट दिलवाया, 28 साल की उम्र में सबसे कम उम्र के विधायक बनकर विधानसभा पहुंचे। 1977 में जनता पार्टी की उत्तर प्रदेश में रामनरेश यादव के नेतृत्व में सरकार बनी, जिसमे मुलायम सिंह यादव को सहकारिता मंत्री बनाया गया।

चौधरी चरण सिंह के राजनीतिक विरासत पर मुलायम सिंह यादव का दांव पेंच भारी पड़ा। बात है, जब चौधरी चरण सिंह गंभीर रूप से बीमार हुए तो उनके बेटे चौधरी अजीत सिंह अमेरिका से भारत आए। उनके आने के बाद चौधरी चरण सिंह के समर्थकों ने चाहा कि चौधरी अजीत सिंह पार्टी के अध्यक्ष बन जाएं। यंही से मुलायम सिंह और अजीत सिंह में राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता बढ़ती गई।

बात है, 1989 में मुख्यमंत्री कौन बनेगा? इस दौड़ में मुलायम सिंह यादव ने दांव पेंच से चौधरी अजीत सिंह को पछाड़ दिया और 05 दिसंबर 1989 में उन्होंने मुख्यमंत्री पद के लिए लखनऊ में शपथ लिया। शपथ लेने के बाद मुलायम सिंह ने कहा कि ‘लोहिया का ग़रीब के बेटे को मुख्यमंत्री बनाने का पुराना सपना साकार हो गया है’।

बाबरी मस्जिद विध्वंस पर उनके सख्त फैसलों ने उन्हें राजनीतिक तौर पर मजबूत किया। मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्री बनने के समय भाजपा का राम मंदिर आंदोलन बहुत तेजी से पैर पसार रहा था। बाबरी मस्जिद के विध्वंस को लेकर उठ रहे आग को बुझाने के लिए भरसक प्रयास करने की कोशिश करते रहे कि प्रदेश में सामाजिक सद्भावना, आपसी सौहार्द बना रहे। लेकिन ऐसा न हुआ, 2 नवंबर 1990 में कारसेवकों ने मस्जिद के ओर बढ़ने की कोशिश की तो उनको रोकने के लिए लाठीचार्ज किया, इस पर भी न मानने पर गोलियां चलाई गई, जिसमें दर्जनों की मौत हो गई। सामाजिक सौहार्द को बचाने के लिए मुलायम सिंह यादव द्वारा किये गए कार्यवाई की वजह से मुस्लिम समाज उनसे और करीब आ गया और भाजपा वालों ने इस घटनाक्रम के बाद मुलायम को ‘मौलाना व मुल्ला मुलायम’ कहने लगे।

समाजवादी पार्टी की स्थापना, साल 1992 में मुलायम सिंह ने जनता दल से अलग होकर समाजवादी पार्टी के रूप में एक अलग पार्टी बनाई। तब तक पिछड़ा मानी जानेवाली जातियों और अल्प संख्यकों के बीच ख़ासे लोकप्रिय हो चुके मुलायम सिंह का ये एक बड़ा क़दम था, जो उनके राजनीतिक जीवन के लिए मददगार साबित हुआ।

1993 में दूसरे बार मुख्यमंत्री, सपा व बसपा गठबंधन, 1993 में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी को 260 में से 109 और बहुजन समाज पार्टी को 163 में से 67 सीटें मिलीं थीं। भारतीय जनता पार्टी को 177 सीटों से संतोष करना पड़ा था और मुलायम सिंह ने कांग्रेस और बीएसपी के समर्थन से राज्य में दूसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी।

रक्षा मंत्री रहते हुए, प्रधानमंत्री पद से चूके। मुलायम सिंह यादव 1996 में यूनाइटेड फ़्रंट की सरकार में रक्षा मंत्री बने।प्रधानमंत्री के पद से देवेगौड़ा के इस्तीफ़ा देने के बाद वो भारत के प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गए।

कुश्ती के अखाड़े से दांव पेंच के माहिर खिलाड़ी राजनीतिक अखाड़े में कई दांव पेंच खेले। पहली बार मुख्यमंत्री बनने के बाद रास्ता आसान न था, केंद्र की सरकार में हो रहे उथल-पुथल से मुख्यमंत्री की कुर्सी बचाने के लिए मुलायम सिंह कभी वीपी सिंह के साथ तो कभी चंद्रशेखर के साथ रहे।

पूरी उम्र चंद्रशेखर उनके नेता रहे, लेकिन जब 1989 में प्रधानमंत्री चुनने की बात आई तो उन्होंने विश्वनाथ प्रताप सिंह का समर्थन किया।थोड़े दिनों बाद जब उनका वीपी सिंह से मोह भंग हो गया, तो उन्होंने फिर चंद्रशेखर का दामन थाम लिया।

इसी तरह वर्ष 2002 में जब एनडीए ने राष्ट्रपति पद के लिए एपीजे अब्दुल कलाम का नाम आगे किया, तो वामपंथी दलों ने उसका विरोध करते हुए कैप्टेन लक्ष्मी सहगल को उनके ख़िलाफ़ उतारा। मुलायम ने आख़िरी समय पर वामपंथियों का समर्थन छोड़ते हुए कलाम की उम्मीदवारी पर अपनी मोहर लगा दी।

मनमोहन की सरकार बचाई। वर्ष 2008 में भी जब परमाणु समझौते के मुद्दे पर लेफ़्ट ने सरकार से समर्थन वापस लिया, तो मुलायम ने उनका साथ न देते हुए सरकार के समर्थन का फ़ैसला किया जिसकी वजह से मनमोहन सिंह की सरकार बच गई।

सोनिया गांधी को समर्थन कह कर न देने के पीछे की कहानी। 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के गिरने के बाद मुलायम सिंह ने कांग्रेस से कहा कि वो उनका समर्थन करेंगे।

उनके इस आश्वासन के बाद ही सोनिया गांधी ने कहा था कि उनके पास 272 लोगों का समर्थन है। लेकिन बाद में वो इससे मुकर गए और सोनिया गांधी की काफ़ी फ़ज़ीहत हुई।

लाल कृष्ण आडवाणी ने अपनी आत्मकथा ‘माई कंट्री, माई लाइफ़’ में इस प्रकरण का ज़िक्र करते हुए लिखा है, “22 अप्रैल की देर रात मेरे पास जॉर्ज फ़र्नांडीस का फ़ोन आया. उन्होंने मुझसे कहा, लालजी मेरे पास आपके लिए अच्छी ख़बर है.

सोनिया गांधी सरकार नहीं बना पाएंगी। उन्होंने कहा कि विपक्ष का एक महत्वपूर्ण व्यक्ति आपसे मिलना चाहता है। लेकिन ये बैठक न तो आपके घर पर हो सकती है और न मेरे घर पर. ये बैठक जया जेटली के सुजान सिंह पार्क के घर में होगी। जया आपको अपनी कार में लेने आएंगीं।”

आडवाणी आगे लिखते हैं, “जब मैं जया जेटली के घर पहुँचा तो वहाँ फ़र्नांडीस और मुलायम सिंह यादव पहले से ही मौजूद थे। फ़र्नांडीस ने कहा, ‘हमारे दोस्त का वादा है कि उनकी पार्टी के 20 सदस्य किसी भी हालत में सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने की मुहिम को समर्थन नहीं देंगे।’

मुलायम सिंह यादव ने फ़र्नांडीस की कही बात दोहराते हुए कहा कि ‘आपको भी मुझसे एक वादा करना होगा कि आप दोबारा सरकार बनाने का दावा पेश नहीं करेंगे। मैं चाहता हूँ कि चुनाव दोबारा हों.’ मैं इसके लिए फ़ौरन राज़ी हो गया।”

ज़िंदगी के आखिरी पड़ाव में बदले-बदले सुर। 2019 के लोकसभा के आखरी सत्र का कही गई बातें चौकाने वाला रहा। 2019 के आम चुनाव में उन्होंने अपने समर्थकों को आश्चर्यचकित कर दिया, जब उन्होंने कहा कि वो चाहते हैं कि नरेंद्र मोदी एक बार फिर प्रधानमंत्री बनें।

– इं शाहरुख अहमद

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