नयी पेंशन योजना : समाज को बर्बर युग में ले जाने की गलत समझदारी

BY- बादल सरोज

सरकारी कर्मचारियों को दिए जाने वाली पेंशन और सेवानिवृत्ति के बाद के लाभ के पीछे आजाद हिन्दुस्तान द्वारा अपनाई गयी कल्याणकारी राज्य की अवधारणा थी। इसके पीछे जहां तीन दशक पहले हुए सोवियत क्रांति की धमक और समाजवादी समाज व्यवस्था में मेहनतकशों को दी गयी सुविधाओं और अधिकारों की चमक थी, वहीँ उससे ज्यादा कीन्स का अर्थशास्त्र था : जिसके मुताबिक़ खुद पूँजीवाद के विकास के लिए बाजार का चलना जरूरी होता है और बाजार तभी चलता है, जब नागरिकों के पास खरीदने की क्षमता होती है, उनकी जेब में पैसे होते हैं।

कीन्स महाशय का मानना था और ठीक ही मानना था कि, जनता की क्रयशक्ति बढ़ाने का काम सार्वजनिक मतलब सरकार द्वारा किये जाने वाले निवेश के जरिये ही किया जा सकता है। तीस के दशक की महामंदी से निबटने के लिए राष्ट्रपति रूजवेल्ट के कार्यकाल में ‘न्यू डील’ के नाम से संयुक्त राज्य अमरीका इसे कारगर तरीके से लागू करके दिखा भी चुका था।

इसके पीछे समाजवाद लाना या समतामूलक समाज बनाना नहीं था, ताजा-ताजा आजाद हुए भारत के लिए तो यह अपरिहार्य कदम था। आजादी के पहले स्वतंत्र भारत के विकास के लिए तब के 10 बड़े भारतीय उद्योग घरानों के 1944 में बनाये गए टाटा-बिड़ला प्लान (इसे बॉम्बे प्लान कहा गया) का आधार भी यही था।

इसी कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को 1991 में लाई गयी सब कुछ बाजार यानि निजी घरानों के मुनाफे पर छोड़ देने वाली नवउदार नीतियों के रास्ते का सबसे बड़ा अवरोध माना गया और इस स्वप्न के अंत की शुरुआत नई पेंशन स्कीम से हुयी।

पहले औद्योगिक मजदूरों के लिए ईपीएस 1995 लाई गयी, जबकि वे पेंशन को तीसरे सेवानिवृत्ति लाभ के रूप में देने की मांग कर रहे थे। वह तो मिली नहीं, उलटे नयी पेंशन योजना के नाम पर उन्हें कुछ सौ रूपये की पेंशन देकर उनसे उनकी आधी भविष्य निधि – लाखों रूपये की रकम – हड़प ली गयी।

उसके बाद सरकारी कर्मचारियों की पेंशन पर गिद्ध दृष्टि पड़ी और 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने एनपीएस के नाम पर 1 अप्रैल, 2004 के बाद भर्ती होने वाले कर्मचारियों की पेंशन ही खत्म कर दी। इसे भी ईपीएस की तरह खुद उन्हीं की हर महीने कटने वाले 10% वेतन से बनी भविष्य निधि की असली ब्याज की तुलना में भी नगण्य छुट्टे पैसे तक ला दिया गया।

इसे इस आसान उदाहरण से से समझा जा सकता है कि : वर्ष 2004 में भर्ती होने के बाद आज जो कर्मचारी रिटायर होता है, यदि उसका मूल वेतन 35000 रु है, तो पहली योजना के अनुसार वह 17500 रूपये पेंशन का हक़दार था, मगर अटल पेंशन योजना के तहत अब उसे मात्र 2625 रूपये मिलेंगे।

नुक्सान सिर्फ इतना भर नहीं है, आशंका यह भी है कि भविष्य में ये सवा छब्बीस सौ भी मिलेंगे कि नहीं। औद्योगिक मजदूरों के पेंशन फण्ड को “कुशलता से प्रबंधित” करने के लिए उसे काफी पहले ही अंबानी की निगरानी में सौंप दिया गया है।

इस सहित केंद्र तथा राज्य सरकारों के पेंशन कोष को “ज्यादा लाभ कमाने” का झुनझुना दिखाकर शेयर बाजार में निवेश करने की भी अनुमति दे दी गयी है। सट्टा बाजार में इसका क्या हश्र होगा, इसे 2008 के अमरीका के अनुभव से समझा जा सकता है, जब पेंशन फण्ड के डूब जाने से लाखों अमरीकी सडकों पर आ गए थे।

हाल में अडानी घोटाले में स्टेट बैंक और एलआईसी का जिक्र तो हुआ, मगर यह नहीं बताया गया कि मजदूरों के पेंशन फण्ड का एक बड़ा हिस्सा इसमें निवेश किया गया था। बाजार डूबने का नतीजा केंद्र सरकार के 22 लाख 74 हजार और राज्य सरकारों के 55 लाख 44 हजार कर्मचारियों की तादाद को देखते हुए कितना विनाशकारी होगा, इसे समझा जा सकता है।

सेवानिवृत्ति के बाद के जीवन को मनुष्य बिना किसी वंचना या अभाव के सम्मानजनक तरीके से गुजारे, यह समझदारी सभ्य समाज के प्रारम्भ से ही है। आधुनिक समाज में पेंशन इसी का एक रूप है। इसलिए पेंशन का खात्मा करना समाज को बर्बर युग में धकेलने से कम नहीं है। भारत में न्यूनतम वेतन तय करने, सेवानिवृत्ति लाभ के रूप में ग्रेच्युटी, प्रोविडेंट फण्ड के एकमुश्त भुगतान के बाद हर माह नियमित पेंशन देने की स्थिति कोई डेढ़ सौ वर्षों के लम्बे विमर्श और संघर्षो का परिणाम है।

मगर यह सिर्फ आधुनिक समझदारी नहीं है। प्राचीन सामाजिक ढांचों, यहां तक कि दास प्रथा जैसे क्रूर शोषण वाली सामाजिक व्यवस्थाओं में भी इसके प्रावधान रखे गए। 8वीं शताब्दी की #शुक्रनीति में भी राजसत्ता के द्वारा नियुक्त कर्मचारियों के बारे में 26 निर्देश दिए गए हैं जिनमें उसके काम के घंटे, साप्ताहिक अवकाश, हर वर्ष में 15 दिन की सवैतनिक छुट्टी आदि-आदि के साथ साफ़ तौर से लिखा गया है कि “जिस सेवक ने 40 वर्ष तक काम किया हो, उसे उसके बाद जब तक वह जीवित रहता है तब तक, बिना काम किये आधा वेतन देना चाहिए।”

जाहिर है, शुक्राचार्य ने ये प्रावधान किसी पवित्र, सदाशयी भावना से नहीं किये थे। उनका मकसद राज्य के विरुद्ध रोष के आक्रोश, विक्षोभ और बगावत में बदल जाने से रोकने का ही था। शुक्राचार्य अकेले नहीं हैं। इधर चाणक्य का अर्थशास्त्र, उधर मैकियावेली का “द प्रिंस” भी इसी तरह के इंतजामों पर जोर देता है।

विडंबना की बात यह है कि कर्मचारियों की पेंशन को खत्म उन्हीं अटल बिहारी वाजपेयी की अगुआई वाली सरकार ने किया, जिनका दावा प्राचीन भारतीय धर्मशास्त्रों के आधार पर राज चलाने का था।

ऐसा करके उन्होंने इस सत्य की एक बार पुनः पुष्टि की कि उनका या उनके आरएसएस का भारत की परम्पराओं के साथ कोई रिश्ता-नाता नहीं है। इस मामले में भी उनके आराध्य और मार्गदर्शक – पेंशन सहित मजदूर कर्मचारियों के हक़ों पर हमलों से अपनी राजनीतिक यात्रा शुरू करने वाले – मुसोलिनी, हिटलर और तोजो ही हैं।

लगता है इस दुःस्वप्न के अंत की भी शुरुआत होने लगी है। 2003-04 में सिर्फ बुद्धदेव भट्टाचार्य की अगुआई वाली वाम मोर्चे की बंगाल सरकार अकेली प्रदेश सरकार थी, जिसने अटल सरकार की पेंशन खत्म कर लाई गयी कथित नयी पेंशन योजना को अपने राज्य में लागू करने से इंकार कर दिया था।

मगर धीरे-धीरे जन असंतोष बढ़ता गया और हाल में हुए हिमाचल प्रदेश के चुनावों में भाजपा के तख्तापलट का मुख्य कारण बना। हिमाचल के बाद छत्तीसगढ़, झारखंड, राजस्थान, पंजाब जैसे गैर भाजपा शासित प्रदेशों ने भी अब कर्मचारियों के लिए पुरानी पेंशन योजना बहाल करने की घोषणाएं कर दी हैं।

पूरे देश में यह मुद्दा अभूतपूर्व विराट लबंदियों, सेवारत और सेवानिवृत्त कर्मचारियों के आंदोलनों के केंद्र में हैं। इसी साल होने वाले कई प्रदेशों और 2024 के लोकसभा चुनाव का यह भी एक प्रमुख मुद्दा बनने जा रहा है। अगर ऐसा हुआ, तो यह सिर्फ करीब एक करोड़ कर्मचारियों या उनसे जुड़े कोई 5 करोड़ भारतीयों को ही प्रभावित नहीं करेगा। नवउदार आर्थिक ढाँचे पर भी करारी चोट करेगा।

लेखक ‘लोकजतन’ के संपादक और अ. भा. किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। लेख में लेखक के निजी विचार हैं। फायर टाइम्स इसके लिए उत्तरदायी नहीं है।

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