आत्महत्या एक केस स्टडी

BY- Dr. AJAY KUMAR

कई घटनाओं के अध्ययन के बाद बस यही पाया क़ि आदमी कितना भी सोचे क़ि वह बहुत मज़बूत है और वह हर परिस्थिति से निपट सकता है लेकिन जब विपरीत परिस्थितियाँ अपनों के बीच या व्यक्तिगत बनती हैं तो वह शायद अपनों से हार जाता है और अपनी जीवन लीला ख़त्म करने का गुनाह कर बैठता है।

वैज्ञानिक कितना भी Dopamine हॉर्मोन को दोषी ठहरा ले क़ि इस हॉर्मोन की वजह से लोग आत्महत्या जैसे कदम उठा लेते हैं लेकिन लोग आपसी रिश्तों के दबाव के चलते इतना घुटन महसूस करते हैं कि परिस्थितियों से लड़ने की बजाय खुद को ख़त्म करने का रास्ता चुनते है। क्योंकि कहावत है “दुनिया से तो लड़ लेंगे लेकिन अपनों से नही” !

आत्महत्या के मामलों में विद्यार्थियों के केस बहुत देखे लेकिन वर्तमान परिदृश्य में PhD scholars के साथ यह दबाव कुछ ज़्यादा ही हावी दिख रहा है। आई॰आई॰टी॰ जैसी संस्थाओं में कुछ बीटेक के छात्रों ने भी इस ग़लत रास्ते को अपनाया है जिसे हम उनकी कच्ची उम्र को दोष दे सकते हैं लेकिन PhD वाले तो काफ़ी परिपक्व होते हैं वह आत्महत्या के रास्ते को क्यों चुनते हैं?

क्या NET JRF और PhD करने के बाद इंसान का रोज़गार पाने का रास्ता आसान हो जाता है? या PhD में ५ से ६ साल गाइड के अहम के आगे अपना क़ीमती समय बर्बाद करने का दबाव भी काम करता है ?

समाज में एक बात सामान्य दिल की मियाँ बीवी की छोटी छोटी लड़ाई भी बड़ी लड़ाई में बदल जाती है और दोनों में से कोई भी अपने जीवन की इस रिश्ते के ख़ातिर अपनी बलि दे देता है। इंसान भावनाओं का समुंदर है जब अपनी भावनाओं में बहता है तो वह यह सोचता है क़ि इस इंसान की वजह से उसकी ज़िंदगी बर्बाद हो गई है और खुद की ज़िंदगी ख़त्म कर लेता है। अब सोचने वाली बात यह क़ि यहाँ नुक़सान किसका हुआ है?

मैं यह सोचता हूँ कि सभी की ज़िंदगी में मुझसे बड़े संघर्ष हैं इसलिए खुद की समस्याएँ तो बौनी साबित होती दिखती प्रतीत होती हैं। लेकिन सोचता हूँ कि भविष्य में अगर अपने लोगों या रिश्तों से हार गया तब मैं क्या इतना मज़बूत, सकारात्मक सोच के साथ dopamine हॉर्मोन को नियंत्रित कर पाऊँगा?

लेकिन लोग यह ज़रूर सोचें की इस ग़लत कदम उठाने से किसी को घंटा फ़र्क़ नही पड़ेगा सिवाय तुम्हारे माता पिता के अगर वो जीवित हैं तो! (पुरुष प्रधान देश में पत्नियों के द्वारा आत्महत्या जैसे कदम से।)

पुरुषों की बिरादरी अपवादों को छोड़कर रांझना तो बिलकुल नही बनते लेकिन अगर आश्रित पत्नी का पति आत्महत्या कर ले तो उस परिवार पर दुखों का पहाड़ टूट जाता है क्योंकि समाज विधवा औरतों को टेड़ी आँखों से देखता है और अकेली औरत को ठरकी लोग जीने भी नही देते।

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