मान्यवर कांशीराम और बहुजन संघर्ष

BY- PRIYANKA PRIYANKAR

“कांशीराम तेरी नेक कमाई, तूने सोती हुई कौम जगाई”,
“85 बनाम 15 की चाबी” जैसी अवधारणाओं और
“वोट हमारा राज तुम्हारा, नहीं चलेगा नहीं चलेगा”,
“जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी”

मान्यवर कांशीराम

जब-जब भारत की राजनीति में बहुजनों में सामाजिक चेतना जगाने की बात होती है, तो मान्‍यवर कांशीराम साहब का आता है, बहुजन समाज के प्रति उनके द्वारा किए गए जन आंदोलनों से नए भारत के निर्माण हुआ है, डॉ. भीमराव अंबेडकर के बाद दूसरा सबसे बड़ा नाम है कांशीराम, जो निस्वार्थ भाव से दलित उत्थान के लिए आजीवन कार्यरत रहने वाला नाम इतिहास में दिखाई देता है।

गुजरात के सामाजिक कार्यकर्ता राजू सोलंकी कहते हैं- आसान नहीं है कांशीराम बनना, कांशीराम बनने का मतलब है नींव की ईंट बनना, कांशीराम बनने का मतलब है पूरे जीवन का समर्पण, अविरत साइकिल रैलियां, अविरत जनसंगठन करके जन आंदोलन खड़ा करना और एक दिन बेझिझक, निस्वार्थ भाव से अनजान दलित लड़की मायावती के हाथों में दलित राजनीति की सत्ता सौंप देना आसान नहीं होता।

बहुजनों को संगठित करने के लिए मान्यवर कांशीराम साहेब ने 1981 में डीएस-4 (दलित शोषित समाज संघर्ष समिति) की स्थापना किया जिसका उन्होंने नारा दिया — “ठाकुर, ब्राह्मण, बनिया छोड़, बाकी सब हैं डीएस-4”

डीएस-4 के जरिए कांशीराम ने दलितों के साथ-साथ अल्पसंख्यकों से भी जनसंपर्क किया। साल 1983 में डीएस-4 ने एक साइकिल रैली का आयोजन किया जिसमें तीन लाख लोगों ने हिस्सा लिया था, कांशीराम ने सात राज्यों में लगभग 3,000 किलोमीटर की साइकिल यात्रा की और इस तरह से दलित, पिछड़ों, और अल्पसंख्यकों को अपने अभियान में साथ जोड़ते रहे।

बहुजन नायक या साहेब के नाम से मशहूर, मान्यवर कांशीराम ने साल 1984 में दलितों के उत्थान हेतु सामाजिक संगठनों के साथ ही बहुजन समाज पार्टी (BSP) का गठन किया, क्योंकि वो दलितों को सिर्फ सरकारी नौकरी में ही नहीं बल्कि राजनीतिक सत्ता में भी हिस्सेदारी दिलाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने मायावती को देश की पहली दलित महिला मुख्यमंत्री बनाकर अपने सपने को सच भी कर दिखाया, उन्होंने वंचितों और दलितों के राजनीतिक एकीकरण के लिए जीवनभर काम किया, समाज के सभी दलित, शोषित, दबे-कुचले वर्गों के लिए एक ऐसी पृष्ठभूमि तैयार किए जहाँ पर वे अपनी बात आसानी से कह सकें।

बसपा की स्थापना करने के बाद कांशीराम ने कहा था डॉ अम्बेडकर किताबें इकट्ठा करते थे, लेकिन मैं लोगों को इकट्ठा करता हूँ।

कांशीराम के प्रयासों से बहुत कम समय में बसपा ने उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपनी एक अलग छाप छोड़ी, उत्तर भारत की राजनीति में गैर-ब्राह्मणवाद की राजनीति बीएसपी ही प्रचलन में लाई थी, हालांकि मंडल दौर की पार्टियां भी सवर्ण जातियों के वर्चस्व के ख़िलाफ़ थीं, दक्षिण भारत में यह पहले से ही शुरू हो चुका था, कांशीराम का मानना था कि अपने हक़ के लिए लड़ना होगा, उसके लिए गिड़गिड़ाने से बात नहीं बनेगी।

इस तरह से दलित आंदोलन खड़ा हुआ जहाँ बहुजन समाज पार्टी आगे चलकर चार बार भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने में सफल रही, साथ ही कई बार केंद्र की सरकारों में अहम भूमिका भी निभाई।

कांशीराम मायावती के मार्गदर्शक थे, मायावती ने कांशीराम की राजनीति को आगे बढ़ाया और बसपा को राजनीति में एक ताकत के रूप में खड़ा किया, लेकिन मायावती कांशीराम की तरह कभी भी एक राजनीतिक चिंतक के रूप में शायद नहीं रहीं हैं, हालांकि आज की राजनीति में अगर दलितों की नेता के रूप में देखते हैं तो मान्यवर कांशीराम के मिशन को मायावती आगे बढ़ा रही हैं, और पिछले सालों में किए गए अपने काम की वजह से दलित वर्ग की श्रेष्ठ राजनायिका के रूप में आज भी अपनी छवि को बरकरार बनाए रखी हैं।

मान्यवर कांशीराम की उत्तराधिकारी मायावती रहीं हैं तो उनमें कुछ विशेष देखकर ही कांशीराम ने उन्हें बहुजन समाज पार्टी की बागडोर सौंपी थी, लेकिन अब कांशीराम और मायावती की दलित राजनीति में बहुत से अंतर दिखाई देते हैं।

कांशीराम के अनुसार, जिस समुदाय का राजनीतिक व्यवस्था में प्रतिनिधित्व नहीं है, वह समुदाय मर चुका है।

कांशीराम ने कहा कि, हम सामाजिक न्याय नहीं चाहते हैं, हम सामाजिक परिवर्तन चाहते हैं, क्योंकि सामाजिक न्याय सत्ता में मौजूद व्यक्ति पर निर्भर करता है। इसलिए जब तक हम राजनीति में सफल नहीं होंगे और हमारे हाथों में शक्ति नहीं होगी, तब तक सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन संभव नहीं है, राजनीतिक शक्ति सफलता की कुंजी है।

कांशीराम कहा कि “जो बहुजन की बात करेगा वो दिल्ली पर राज करेगा” जहाँ उनकी बनाई 85 बनाम 15″नंबर की चाबी जाने कहीं खो सी गई है या यूं कहें कि दलित राजनीति लगभग ख़त्म सी हो गई है।

कांशीराम को पढ़ने पर ऐसा प्रतीत होता है कि वह “बहुजन हिताय बहुजन सुखाय” की अवधारणा को विकसित करने और उसे मजबूत होते हुए देखना चाहते थे, लेकिन इस अवधारणा को पीछे छोड़कर मायावती ने “बहुजन” की जगह “सर्वजन” की ओर रुख कर लिया, जो कि आज के समय में बहुजन समाज पार्टी के लिए घातक साबित हुआ है।

कांशीराम का मानना था कि “जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी” लेकिन अब वैसा न ही सुनने को मिल रहा है और ना वैसा संघर्ष कहीं दिखाई दे रहा है।

कांशीराम के अनुसार, ऊंची जातियां हमसे पूछती हैं कि हम उन्हें पार्टी में शामिल क्यों नहीं करते, लेकिन मैं उनसे कहता हूं कि आप अन्य सभी दलों का नेतृत्व कर रहे हैं, यदि आप हमारी पार्टी में शामिल होंगे तो आप बदलाव को रोकेंगे, मुझे पार्टी में ऊंची जातियों को लेकर डर लगता है, क्योंकि वह हमेशा नेतृत्व संभालने की कोशिश करते हैं, यह सिस्टम को बदलने की प्रक्रिया को रोक देगा, इसलिए जब तक, जाति है, मैं अपने समुदाय के लाभ के लिए इसका उपयोग करूंगा, यदि आपको कोई समस्या है, तो जाति व्यवस्था को समाप्त करें।

जहां ब्राह्मणवाद एक सफलता है, कोई अन्य “वाद” सफल नहीं हो सकता है, हमें मौलिक, संरचनात्मक, सामाजिक परिवर्तनों की आवश्यकता है। इन हथकड़ियों को तोड़ने का समय आ गया है, अब हमें तब तक नहीं रुकना है, जब तक हम व्यवस्था के पीड़ितों को एकजुट करके देश में व्याप्त असमानता की भावना को खत्म नहीं कर देते।

इसलिए अब बहुजन समाज पार्टी का यह लक्ष्य होना चाहिए कि इस गैर-बराबरी को दूर करने की कोशिश करें, क्योंकि जब-जब कोई दलित संघर्ष मनुवादी ताकतों को चुनौती देता है, तब-तब ब्राह्मण-सवर्ण वर्चस्व वाले राजनीतिक दल, उनके दलित नेताओं को सामने लाकर आंदोलन को कमज़ोर करने का काम करते हैं।

जब भी दलित वर्गों का नेतृत्व सशक्त और प्रबल हुआ है, वहाँ ऊंची जाति के हिंदुओं को यह ज़रूरत महसूस हुई कि वे दलित वर्गों के सच्चे नेताओं के ख़िलाफ़ चमचे खड़े करें जिससे उनको हरा सके उनके हिम्मत को तोड़ सकें और ऐसा करने में ज्यादातर वो सफ़ल भी रहे हैं।

इस बार के विधानसभा चुनाव में बसपा की जो स्थिति है, उससे साफ जाहिर होता है कि, बसपा को सिर्फ और सिर्फ कांशीराम की राजनीतिक अवधारणा के अनुसार ही पुनर्जीवित किया जा सकता है।

इसलिए अब बीएसपी सुप्रीमो मायावती जी को एक बार फिर से कांशीराम की राजनीतिक अवधारणा को अपनाना होगा “सर्वजन” से ज्यादा “बहुजन” पर ध्यान केंद्रित करना होगा।

जिसमें कुछ प्रमुख तथ्यों की ओर रुख करने की जरूरत है– सत्ता पाने के लिए जन आंदोलन की जरूरत होती है-

  • उस जन आंदोलन को वोटों में परिवर्तित करना
  • उसके पश्चात वोटों को सीटों में बदलना
  • सीटों को सत्ता में परिवर्तित करना और अंतिम रूप से सत्ता अर्थात केंद्र में परिवर्तित करना

यह हमारे लिए मिशन और लक्ष्य की तरह होना चाहिए। इसके लिए ज़मीनी स्तर के संघर्षशील नेताओं को जगह देनी चाहिए जो अभी भी एक नई ऊर्जा के साथ मिशनरी के रूप में कार्य कर रहे हैं।

उम्मीद है कि आने वाले समय में इससे एक नई परिवर्तन की ज्योति जरूर जलेगी और बसपा को फ़िर से उसी ऊंचाई और श्रेष्ठता पर स्थापित किया जा सकेगा।

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