चुनौतियों से जूझ रही कांशीराम की राजनीतिक विरासत, दूर की कौड़ी हुई राजसत्ता

BY- SANJEEV BHARTI

“राजनीति चले या न चले,सरकार बने या न बने लेकिन सामाजिक परिवर्तन की गति किसी भी कीमत पर रूकनी नहीं चाहिए।”

लगभग तीन दशक पहले मान्यवर कांशीराम की ओर से कही गयी ये पंक्तियां आज उनकी राजनीतिक विरासत और भारतीय दलित राजनीति के लिए सबसे अधिक प्रासंगिक हो गई है।आज कांशीराम की जयन्ती पूरे देश में ऐसे समय पर मनाई जा रही है।जब देश की दलित राजनीति को लेकर तमाम तरह के सवाल-जवाब हो रहे है।उत्तर प्रदेश की राजनीति में सत्ता तक पहुँचने वाली बहुजन समाज पार्टी के चुनाव में खराब प्रदर्शन को लेकर पार्टी के कैडर दुखी है।

तमाम तरह के बयान और सुझाव सोशल मीडिया पर लोग खूब दे रहें है।तमाम ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने कांशीराम के जीवन संघर्ष को न तो ठीक से पढ़ा है और न ही ठीक से जानने की कोशिश की है।उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक डॉ अम्बेडकर और कांशीराम के नाम पर तमाम संगठन काम कर रहे है।

सभी संगठन राजनीतिक सत्ता की मास्टर चाभी को हाथ में लेकर बाबा साहब डॉ अम्बेडकर का सपना साकार करने की बात करते हैं।बाबा साहब डॉ अम्बेडकर ने भारतीय संविधान के माध्यम से सबको समान वोट का अधिकार देकर देश की राजनीति में बदलाव और शोषणमुक्त समतामूलक समाज निर्माण का संदेश दिया था।

अधिकारों से वंचित बहुजन समाज को शिक्षित,सूचित व जागरूक बनाने के लिए बाबा साहब डॉ अम्बेडकर ने जीवनभर संघर्ष किया और राजनीतिक सत्ता के भारतीय रिपब्लिकन पार्टी नाम की राजनीतिक पार्टी खड़ी की।इस पार्टी का महाराष्ट्र में काफी प्रभाव रहा।

दुखद पहलू ये है बाबा साहब डॉ अम्बेडकर के महापरिनिर्वाण के बाद ये पार्टी 14 धड़ो में बंटती हुई पूरी तरह बिखर गई। संघप्रिय गौतम और बुद्धप्रिय मौर्या जैसे नेताओं ने अपने राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए अंबेडकर मिशन को डुबो दिया। लगभग एक दशक तक डॉ अंबेडकर के अनुयायी इधर-उधर बिखरे रहे।

पुणे में सहायक वैज्ञानिक के तौर पर कार्य कर रहे कांशीराम और चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी दीनामाना की मुलाकात के साथ अंबेडकर जयंती की छुट्टी को लेकर किये गए संघर्ष ने प्रयोगशाला के वैज्ञानिक कांशीराम की जिंदगी का सफर बदल दिया। वे वैज्ञानिक से सामाजिक वैज्ञानिक हो गए और बाबा साहब डॉ अम्बेडकर के मूवमेंट को पूरा करने के लिए घर द्वार छोड़ दिया। लगभग पाँच साल तक देशाटन करते रहे। बाबा साहब डॉ अम्बेडकर के सहयोगियों से मुलाकात करते रहे और उनके साहित्य को कई बार पढ़ा।

बाबा साहब की पुस्तक एनहिलीसन ऑफ़ कास्ट ने उनके जीवन का लक्ष्य बदल दिया। पढ़े लिखे कर्मचारियों को संगठित किया और छः दिसंबर 1978 को बामसेफ नाम का एक संगठन बनाया। 1981 में दलित शोषित समाज संघर्ष समिति, डीएस फोर के नाम से सामाजिक संगठन खड़ा किया। सामाजिक कार्यों के दौरान वे आरपीआई को एकजुट करने की पूरी कोशिश करते रहे परन्तु सफल नहीं हुए।

14 अप्रैल 1984 को उन्होंने बहुजन समाज पार्टी नाम से एक नया राजनीतिक दल बनाया और अपने जीवन में ही इसे राष्ट्रीय पार्टी भी बना दिया। कांशीराम ने उत्तर प्रदेश राजनीति की प्रयोगशाला बनाया था। यहाँ उनके सभी राजनीतिक टेस्ट सफल हुए और उन्होंने बहन मायावती जी को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाया।

मुख्यमंत्री बनने के बाद मायावती जी ने कांशीराम साहब के मिशन को पूरी ताकत और साहस के साथ विरोधियों से लड़ते हुए आगे बढ़ाया। उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी। परंतु इस सरकार को साहब कांशीराम नहीं देख पाए।

आज उत्तर प्रदेश और देश की राजनीतिक परिस्थिति बदली हुई है। बहुजन समाज पार्टी के खराब प्रदर्शन को लेकर विरोधियों के साथ तमाम अंबेडकरवादी संगठनों के नेता भी मायावती पर चौतरफ़ा हमला कर रहें है। दलित राजनीति के भविष्य को लेकर कई तरह की शंकाएं और आशंकाएं व्यक्त की जा रही है। लोगों का भरोसा भी टूट रहा है। भारतीय संविधान को बदलने के ख़तरे बढ़े हुए हैं। आज के दौर में कांशीराम व अम्बेडकर के अनुयायियों को फिर से पढ़ने और बार बार पढ़ने की जरूरत है।

बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर ने ऊंच नीच और जातिवाद की व्यवस्था के चक्रव्यूह में फसें दलित व पिछड़े सामज को नई दिशा देने के लिए बौद्ध धर्म ग्रहण किया। कांशीराम ने 6743 जातियों में बटे समाज को एकजुटकर बहुजन समाज का विशाल संगठन खड़ा किया। जाति तोड़ो समाज जोड़ो सम्मेलन करके जातियों को एकजुट कर शासन सत्ता के नजदीक पहुँचाया।

कांशीराम की राजनीतिक पाठशाला में पढ़े हुए लोग आज बड़ी संख्या में अपनी अपनी जातियों की पार्टियां बनाकर राजनीति में आगे बढ़ने के द्वंद में लगे हुए है। कोई परिवार के लिए परेशान है तो कोई बिरादरी के लिए। जातिवाद खत्म करने की बात करने वाले और खुद को डॉ अम्बेडकर का अनुयायी बताने वाले राजनेता चाहे दलित समाज के हों या पिछड़े समाज के हों, वही सबसे बड़े जातिवादी हैं।

उत्तर प्रदेश की राजनीति भी जातिवाद को पूरी तरह ग्रसित है। हर राजनेता अपनी जाति को सबसे मजबूत व ताक़तवर बताकर राजनीतिक सौदेबाजी कर रहा है। इस सौदेबाज़ी में कुछ को फायदा मिला है। अधिकांश जातियां अभी भी हांसिये पर हैं।

डॉ अम्बेडकर के नाम पर लगभग सभी राजनीतिक दल अपनी राजनीतिक दुकाने चलाने की कोशिश कर रहें है। कांशीराम जिन्होंने सोती हुई कौमों को जगाकर जय भीम के नारे को भारत के गाँव-गली चट्टी चौराहे तक पहुँचाया। उनका सपना पूरी तरह तार-तार हो रहा है।

कांशीराम ने अपने समय में राजनीतिक चमचों के प्रति बहुजन समाज को सावधान करने को चमचा एज नामक पुस्तक लिखी। यह पुस्तक आज भी प्रासंगिक है। अन्य राजनीतिक दलों की बात छोड़ दी जाए तो बसपा में भी खूब चमचे पैदा हो गए हैं। अंबेडकर व कांशीराम के मूवमेंट को जमकर नुकसान पहुँचा रहे है। कांशीराम के नाम पूरी दुनिया में एक इंच भी जमीन नहीं थी उन्होनें श्मशान घाट से 10 रुपये का सस्ता कोट खरीदकर जाड़ा भगाया था। यही नहीं अपने लखनऊ प्रवास के दौरान एक कार्यकर्ता के घर तीन दिन की पड़ी सूखी रोटी को पानी में भिगोकर खायी और भूख मिटाई। अपने संघर्षों के बल पर भारतीय राजनीति के व्याकरण को बदल दिया। कभी भी कुर्सी का मोह नहीं किया। बहुजन समाज को न बिकने वाला समाज बनाने का संदेश दिया।

आज क्या हो रहा है। नीला परचम लेकर चलने वाले सभी लोगों को सोचने की जरूरत है। पैसा कमाने की गलाकाट प्रतियोगिता तेजी से चल रही है। राजनीति व्यवसाय बनती जा रही है। कांशीराम ने कई तरह के आंदोलन चलाए और कश्मीर से कन्याकुमारी तक 4200 किलोमीटर साइकिल चलाई।

आज खुद को अंबेडकरवादी कहने वाले कार्यकर्ता साइकिल से संगठन का काम करने में शर्म महसूस करते हैं। कांशीराम ने एक वोट, एक नोट के सहारे पार्टी को मजबूत किया। आज के लीडर भामाशाहों कि थैलियों की तरफ दौड़ते रहते है। अलग अलग संगठन बनाकर स्वार्थसिद्धि के लिए काम करने वाले लोग भी कांशीराम व अंबेडकर के नाम पर झूठी राजनीति कर रहें है।

आजादी के बाद लंबे समय तक दलित राजनीति हांसिये पर रहा। कांशीराम ने अधिकारों से वंचित वर्ग को सत्ता के करीब पहुँचाया। दलित समाज वोटबैंक बना पिछड़ो ने उनका साथ पकड़कर सत्ता शासन का स्वाद लिया और राजसत्ता में भागेदारी मिलने के बाद बुराइयां शुरू हो गयी। सब आपस में स्वयंभू अध्यक्ष बनने के लिए लड़ने लगे और सत्ता हाथ से चली गयी।

अब पछताये का होत का, जब चिड़िया चुग गयी खेत

चुनाव के समय जिन लोगों ने ठीक से काम नहीं किया वही लोग बसपा सुप्रीमो को सबसे अधिक सलाह दे रहें है। बहन मायावती के नये पुराने बयानों को लेकर पहले की तरह इस चुनाव में भी खूब आलोचनाएं हो रही हैं। उन्होंने इस बार अपने लोगों पर जो भरोसा किया था वो धोखा साबित हुआ। शायद संगठन की जमीनी हकीकत की पता उन्हें नही चल पायी।

कांशीराम साहब ने कहा था हमारा संघर्ष अपने हकों की प्राप्ति के लिए है, किसी का हक का मारने के लिए नहीं! बहन मायावती ने बहुजन के फार्मूले को सर्वजन में बदला और सर्वजन हिताय व सर्वजन सुखाय का नारा दिया। अभी भी समय है, डॉ अंबेडकर और कांशीराम के नाम पर राजनीति चमकाने वाले अपने कार्य व व्यवहार में बदलाव लाएं। जातिधर्म नहीं विचारधारा बड़ी होती है, देश बड़ा होता है। यदि समय रहते राजनेताओं और कार्यकर्ताओं ने अपनी प्रवृत्ति व कार्यनीति में बदलाव न किया तो आने वाली पीढ़ी कभी माफ़ नहीं करेगी।

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